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Monday, May 9, 2011

गुरु ही ईश्वर, ईश्वर ही गुरु

गुरु ही ईश्वर, ईश्वर ही गुरु
मनुष्य को किसी भी दशा में पशु नहीं कहा जा सकता है। ईश्वर की रची सृष्टि में विभिन्न प्राणियों में से एक है मनुष्य, दूसरे हैं पशु और तीसरे हैं वनस्पति। इन तीनों के भी कई विभिन्न आकार व प्रकार होते हैं, सब एक जैसे नहीं होते हैं।

हर मनुष्य जन्म के बाद कुछ समय तक पशुवत ही रहता है। उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ होता। इसी कारण हम कहते हैं कि वह शिशु है। उसने अवश्य गलत किया है, किन्तु उसे छोड़ दो, कुछ न कहो, उसे क्षमा कर दो, क्योंकि उसमें बुद्धि-वृत्ति नहीं जगी होती है। मजे की बात तो यह है कि शिशु के मल-मूत्र से भी हम घृणा नहीं करते हैं, जैसे पशु के विषय में। वह शिशु जब थोड़ा बड़ा होता है, तब उसमें विवेक का जागरण होता है। तब वह छोटा-सा शिशु अपनी दीदी को नाम से पुकारने लगता है। दीदी को इस बात का बुरा नहीं लगता है, बल्कि अच्छा ही लगता है। घर के अन्य लोगों को भी बुरा नहीं लगता है। किंतु, शिशु कुछ बड़ा होता है तो दीदी उससे कहती है कि तू चाहे कहीं भी, किसी के भी सामने मुझे मेरे नाम से पुकार ले, लेकिन यह याद रख, मेरी ससुराल वालों के सामने मुझे मेरा नाम लेकर नहीं पुकारना। वहां तो मुझे दीदी ही कह कर पुकारना।''

जब व्यक्ति बड़ा हो जाता है, उसमें पर्याप्त समझ आ जाती है, तब उसके अपराधों को क्षमा की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है। उस दृष्टि से देखना उचित भी नहीं है। इसी कारण जब मनुष्य में ज्ञान-बुद्धि जगती है, तब उसे वैदिक दीक्षा दी जाती है। इस दीक्षा का अर्थ है कि तुम ईश्वर से प्रार्थना करो, ``हे ईश्वर, मुझे सही रास्ता दिखाओ।'' तुम जब रास्ते की मांग कर रहे हो, तो रास्ता तुम्हें मिलेगा ही। फिर प्रार्थना करो, ``हे ईश्वर, हमारी बुद्धियों-वृत्तियों को ठीक रास्ते पर ले चलो।'' इस वैदिक दीक्षा के बाद यह मान लेना होगा कि व्यक्ति को कुछ अकल आई है। तब उसे तांत्रिक दीक्षा देनी होगी अर्थात् उसे इष्टमंत्र और गुरुमंत्र देना होगा।

इस दीक्षा के बाद वह जैसे एकदम नया आदमी बन जाता है। ईश्वर के सम्मुख प्रार्थना करने के बाद ईश्वर ही इष्टमंत्र और दीक्षा दिलवाने की व्यवस्था करवा देते हैं। इस प्रकार वही गुरु हैं। इसलिये यह कह सकते हैं कि गुरु ही ईश्वर है और ईश्वर ही गुरु है।

हम यह भी कह सकते हैं कि जब तक मनुष्य साधना के मार्ग में नहीं आया था, तब तक वह पशु के समान ही था। उसका शरीर तो मनुष्य का था, परंतु चिंतन पशु के समान था। यह भी ध्यान रखें कि मनुष्य जब साधना के पथ पर आता है, तब उस पर चारों तरफ से बाधाएँ-विपत्तियां आती हैं। घर के सदस्य बाधा डालते हैं, बंधु-बांधव भी अड़चनें पैदा करते हैं। वह उनसे संघर्ष करता हुआ चलता रहता है। ऐसा साधक पशु नहीं रहता है और इस वीर भाव में जब वह प्रतिष्ठित हो जाता है, तो वह किसी पाप व अनाचार को सहन नहीं कर सकता है। तब वह स्वाभाविक रूप से न तो स्वयं अन्याय करता है और न ही दूसरों के द्वारा किये किसी भी प्रकार के अन्याय को सहन करता है। उसका यह एक स्वभाव बन जाता है। इस क्रम से वह वीर भाव के जरिए देवत्व का काम करता है और एक तरह से देवता बन जाता है। ऐसी स्थिति का जो भाव है, उसका नाम है दिव्य-भाव। जो मनुष्य अपने आचरण के द्वारा ऊपर उठता है, उसे हम शिव तुल्य या देव तुल्य मनुष्य कहते हैं। अर्थात् वह ऊपर उठता जाता है और इस तरह एक दिन वह उस परमपुरुष में लीन होकर परमपुरुष ही बन जाता है।

ये हैं मनुष्य के विभिन्न स्तर। पर यह सोचना है कि मनुष्य मात्र होना ही बहुत ऊँचे स्तर का जीव होना है, यह सही नहीं है। पर उसमें ऊँचे उठने की संभावना छिपी है। इस संभावना को जो काम में लगाता है, वही बुद्धिमान है। और जो इस बुद्धि को काम में नहीं लगाता, वह पशु की तरह जीवन बिताता है। फिर पुनर्जन्म लेकर पशु से भी निम्न दशा का जीवन व्यतीत करता है।

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