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Friday, August 1, 2014

नाग पंचमी का धार्मिक महत्व (1 अगस्त 2014) Nag Panchami Ka Dharmik Mahatva

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नाग पंचमी का धार्मिक महत्व

लेख साभार: गुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (अगस्त-2014)

नाग पंचमी व्रत श्रावण शुक्ल पंचमीको किया जाता है । लेकिन लोकाचार व संस्कृति- भेद के कारण नाग पंचमी व्रत को किसी जगह कृष्णपक्षमें भी किया जाता है । इसमे परविद्धा युक्त पंचमी ली जाती है । पौराणिक मान्यता के अनुशार इस दिन नाग-सर्प को दूधसे स्त्रान और पूजन कर दूध पिलाने से व्रती को पुण्य फल की प्राप्ति होती हैं। अपने घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर गोबरके सर्प बनाकर उनका दही, दूर्वा, कुशा, गन्ध, अक्षत, पुष्प, मोदक और मालपुआ इत्यादिसे पूजन कर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर एकभुक्त व्रत करनेसे घरमें सर्पोंका भय नहीं होता है । 
सर्पविष दूर करने हेतु निम्न निम्नलिखित मंत्र का जप करने का विधान हैं। 
"ॐ कुरुकुल्ये हुं फद स्वाहा।"

नाग पंचमी की पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुशार प्राचीन काल में किसी नगर के एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों पुत्रों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदुषी और सुशील थी, लेकिन उसका कोई भाई नहीं था।

एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने के लिए पीली मिट्टी लाने हेतु सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी बहू उस के साथ मिट्टी खोदने के औजार लेकर चली गई और किसी स्थान पर मिट्टी खोदने लगी, तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने बड़ी बहू को रोकते हुए कहा  "मत मारो इस सर्प को? यह बेचारा निरपराध है।"

छोटी बहू के कहने पर बड़ी बहू ने सर्प को नहीं मारा और सर्प एक ओर जाकर बैठ गया। तब छोटी बहू ने सर्प से कहा "हम अभी लौट कर आती हैं तुम यहां से कहीं जाना मत" इतना कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और घर के कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।

उसे दूसरे दिन वह बात याद आई तो सब बहूओं को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली "सर्प भैया नमस्कार!" सर्प ने कहा तू भैया कह चुकी है, इसलिए तुझे छोड़ देता हूं, नहीं तो झूठे वादे करने के कारण तुझे अभी डस लेता। छोटी बहू बोली भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा माँगती हूं, तब सर्प बोला- अच्छा, तू आज से मेरी बहिन हुई और मैं तेरा भाई हुआ। तुझे जो मांगना हो, माँग ले। वह बोली- भैया! मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो तू मेरा भाई बन गया।

कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप धरकर उसके घर आया और बोला कि "मेरी बहिन को बुला दो, मैं उसे लेने आया हूँ" सबने कहा कि इसके तो कोई भाई नहीं था! तो वह बोला- मैं दूर के रिश्ते में इसका भाई हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि "मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तू डरना नहीं और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरा हाथ पकड़ लेना। उसने कहे अनुसार ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। वहाँ के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई।

वह सर्प परिवार अके साथ आनंद से रहने लगी। एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा "मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे गलति से गर्म दूध पिला दिया, जिसमें उसका मुहँ बुरी तरह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत क्रोधित हुई। परंतु सर्प के समझाने पर माँ चुप हो गई। तब सर्प ने कहा कि बहिन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे भेट स्वरुप बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र-भूषण आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।

साथ लाया ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू ने ईर्षा से कहा तुम्हारां भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए। सर्प ने यह वचन सुना तो सब वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू की लालच बढ़ गई उसने फिर कहा "इन्हें झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए" तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर रख दी।

सर्प ने अपने बहिन को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि "सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।" राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि "महारानीजी ने छोटी बहू का हार मंगवाया हैं, तो वह हार अपनी बहू से लेकर मुझे दे दो"। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया।

छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सर्प भाई को याद किया और आने पर प्रार्थना की- भैया ! रानी ने मेरा हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब वह पुनः हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी।

यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठजी डर गए कि राजा न जाने क्या करेगा? वे स्वयं छोटी बहू को साथ लेकर उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा "तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा।" छोटी बहू बोली "राजन ! धृष्टता क्षमा कीजिए" यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सर्प बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सर्प बना हार उसे देकर कहा- अभी पहनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया।

यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे भेट में बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी वह अपने हार और भेट सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्षा के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा सच-सच बताना कि यह "धन तुझे कौन देता है?" तब वह सर्प को याद करने लगी।

तब उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा यदि मेरी धर्म बहिन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे डंस लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। मान्यता हैं की उसी दिन से नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।

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